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स्वर्ग नहीं बनता सियासी घोषणा पत्रों से

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अठारहवीं लोकसभा केलिए मतदान से पांच दिन पहले आखिरकार भाजपा का भी चुनावी घोषणा पत्र भी आ गया। कांग्रेस, सपा,राजद और बसपा के अलावा दीगर राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र पहले ही आ चुके है । फिलहाल हर दल अपने चुनावी घोषणा पत्र को सर्वश्रेष्ठ बता रहा है,लेकिन जनता के लिए इसमें से सर्वश्रेष्ठ चुनना आसान नहीं है ,क्योंकि हर दल का चुनावी घोषणा पत्र स्वर्ग को जमीन पर उतार लाने की बात करता है। आजतक किसी भी राजनीतिक दल ने जिस चुनावी घोषणा पत्र के आधार पर वोट मांगे उसे पूरा नहीं किया। ये ‘ ाक्ष कुसुम ही साबित हुए।

दुर्भाग्य से देश में चुनाव घोषणा पत्रों का इतिहास नहीं लिखा गया । लिखा इसलिए नहीं गया क्योंकि सब इसे झूठ का पुलिंदा मानते आये । वैसे ये एक दिलचस्प विषय हो सकता है। ये जानने की बहुत जरूरत है कि 1952 से लेकर 2024 तक 72 साल में इन चुनावी घोषणा पत्रों पर किस पार्टी ने कितना अमल किया और किसने नहीं ? कम से कम बारह लोकसभा चुनावों के घोषणा पत्र तो मेरी स्मृति में हैं। सवाल ये है कि क्या राजनीतिक पार्टियों के घोषणा-पत्र चुनाव के पहले, उसके दौरान और उसके बाद कोई सार्थक भूमिका निभाते हैं ? क्या वे लोगों को पेश किए जाने वाले पार्टी के विचारों, नजरिए और कार्यक्रमों का शक्तिशाली प्रतीक होते हैं या केवल सांकेतिक भर होते हैं ? अधिकांश मतदाता मतदान करने से पहले घोषणा-पत्र पढ़ने की जरूरत ही नहीं समझते । देश में ज्यादातर घोषणा-पत्रों को कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है। मजे की बात ये है कि कचरा होने के बावजूद घोषणा-पत्र पार्टियों की भावी योजना, मुख्य मुद्दों पर कार्यक्रमों और वैचारिक नजरिए को उजागर करने के लिए एक महत्वपूर्ण चोचला बने हुए हैं , हाल के दिनों में भाजपा ने कांग्रेस के घोषणा पत्र को मुस्लिम लीग से प्रभावित घोषणा पत्र बताया तो भाजपा के घोषणा पत्र को लेकर कमोवेश ऐसी ही टिपण्णियां की जा रहीं है। कुछ तो भाजपा के घोषणा पत्र से बेहतर घोषणा पत्र राष्ट्रीय जनता दल के घोषणा पत्र को बता रहे हैं।

एक अच्छी बात ये है कि इस रूखे यानि शुष्क विषय पर सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने अध्ययन का एक तरीका निकाला है, जिसमें कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) के 1952 से लोकसभा चुनावों के घोषणा पत्रों का जायजा लिया गया। अध्ययन में 1980 के पहले बीजेपी के बदले भारतीय जनसंघ और 1971 के पहले सीपीआई-एम के बदले भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा-पत्रों पर गौर किया गया है। ये तीन पार्टियां भारतीय राजनीति की वैचारिक दायरे का प्रतिनिधित्व करती हैं और अध्ययन में उन मुद्दों के उभरने पर गौर किया गया, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए मायने रखते हैं।

इस अध्ययन में स्वतंत्र कोडिंग करने वालों और शोधकर्ताओं की एक बड़ी टीम ‘शब्द गणना’ के जरिए गणना योग्य पैमाने पर पहुंची है, यानी घोषणा-पत्र में किसी मुद्दे पर कितने शब्द लिखे गए हैं। इस मकसद से सात बड़े मुद्दों की पहचान की गई है। घोषणा पत्रों में राष्ट्रीय सुरक्षा, राजनीतिक काबिलियत, राजनीतिक तंत्र, सामाजिक तानाबाना, आर्थिक योजना, कल्याणकारी कार्यक्रम, और विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर तक को शामिल किया जाता रहा है। अब तो घोषणा पत्र गारंटी पत्र बन चुके है। सत्तारूढ़ भाजपा के साथ कांग्रेस ने भी मतदाताओं को गारंटियां दी है। लेकिन किसी भी दल की गारंटी किसी क़ानून के दायरे में नहीं आती । भाजपा की गारंटी भाजपा की नहीं मोदी की गारंटी है,ऐसे ही कांग्रेस की गारंटी राहुल की नहीं कांग्रेस की गारंटी है। एक गारंटी पर व्यक्ति का नाम है तो एक पर पार्टी का।

आपको बता दूँ कि 1952 से घोषणा-पत्रों का अध्ययन देश के पहले चुनाव से राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज के ढांचे में आए गहरे बदलावों की भी मोटी तस्वीर पेश करता है। चुनाव घोषणा-पत्र भले भुलाए जा सकते हैं, मगर वे अपनी ऐतिहासिक छाप छोड़ जाते हैं। घोषणा पत्रों के विश्लेषण से पता चलता है की तीनों राजनीतिक संगठनों के सभी घोषणा-पत्रों में आर्थिक योजना, कल्याणकारी कार्यक्रमों और विकास व इंफ्रास्ट्रक्चर को काफी महत्व दिया है। तीनों के घोषणा-पत्रों में इन तीनों विषयों पर में कुल 55 फीसदी शब्द लिखे गए। हालांकि बाद के दशकों में इसके संदर्भ बदल गए। आजादी के बाद के पहले चार दशकों में आर्थिक योजना के सोशलिस्ट मॉडल पर जोर रहा जबकि निजी क्षेत्र की पैरोकार इकलौती भाजपा रही है। वर्ष 1991 में विश्वव्यापी आर्थिक उदारीकरण से सभी घोषणा-पत्रों में इस वर्ग में मुद्दों की प्रकृति बदल गई।

मजे की बात ये है कि सभी पार्टियों ने ग्रामीण भारत के प्रति प्रतिबद्धता के नारे तो उछाले, लेकिन विकास और इंफ्रास्ट्रक्चर के वर्ग में ग्रामीण विकास पर फोकस 1952 में 42 फीसदी से 2019 में गिरकर 5.6 फीसदी पर आ गया। यही वजह है कि आज जब भाजपा का चुनाव घोषणा पत्र जारी हुआ है तब भी देश के किसान दिल्ली की सीमा पर आंदोलन कर रहे हैं। भाजपा का फोकस किसान से ज्यादा कारपोरेट पर है ,लेकिन मतदाता के लिए ये समझ पाना दूर कि कौड़ी है।पिछले एक दशक में इस देश में सबसे ज्यादा फायदा कारपोरेट का हुआ ,किसान का नहीं।

आज के चुनाव घोषणा पत्रों के विषय और शब्दावली दोनों बदल गए है। पहले चुनाव घोषणा पत्रों में आतंकवाद,मंदिर,एक निशान,एक विधान ,सीआईए एनआरसी ,जातीय जन गणना जैसे विषय नहीं होते थी । सुरक्षा,विदेशनीति जरूर होती थी। अब पहली बार ‘डिग्निटी’ और ‘क्वालिटी’जैसे शब्द भी चुनाव घोषणा पत्रों का हिस्सा बने हैं। इन चुनावी घोषणापत्रों का अन्य उत्पादों के साथ मिलने वाली गारंटी जैसा कोई वैधानिक स्वरूप नहीं है। यदि इन घोषणा पत्रों को भी कानूनी रूप दिया जाये और इनका पालन न करने पर जनता कि और से जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने जैसी कोई व्यवस्था हो तब तो कोई बात है ,अन्यथा ये चुनावी घोषणा पत्र ‘ आकाश कुसुम ‘ बनकर रह जायेंगे। अभी तक तो बने ही हुए हैं।

@ राकेश अचल

achalrakesh1959@gmail.com

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