संजय निरुपम और संजय अनुपम
संजय होना आसान बात नहीं है । संजय यानि सारथी। सारथी ऐसा जो आजीवन साथ निभाए । हम और आप अनेक संजयों को जानते हैं । महाभारत के संजय से लेकर फिल्मों के संजय तक को ,लेकिन आज मै बात कर रहा हूँ राजनीति के दो ऐसे संजय की जो निरुपम होते हुए भी निरुपम नहीं रहे और एक संजय से संजय अनुपम बनते दिखाई दे रहे हैं।
दरअसल संजय होना बहुत कठिन काम है। सबसे पहले बात करते हैं संजय निरुपम की। संजय निरुपम पत्रकारिता से राजनीति में आये। जब मैं दिल्ली जनसत्ता के लिए अपनी सेवाएं देता था,तब वे मुंबई संस्करण से जुड़े थे। अपनी दिलचस्पी की वजह से वे राजनीति में आये । संजय पुराने शिव सैनिक रहे हैं।निरूपम को 1996 में शिवसेना ने राज्यसभा में भेजा था।तब वह जनसत्ता छोड़कर दोपहर का सामना का सम्पादक था।दूसरी बार भी राज्यसभा में शिवसेना ने ही भेजा था। बाजपेयी सरकार का विरोध करने पर बालासाहब की नाराजगी पर उसे सेना छोड़नी पड़ी।तब मार्फ़त अहमद पटेल वह कॉंग्रेस में आये थे और शिवसेना से जुड़े। संजय ने अपनी सेवाओं से कांग्रेस मेंअपनी जगह बनाई , खुशनसीब थे संजय निरुपम। संजय ने 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने मुंबई [उत्तर ] से भाजपा के प्रत्याशी राम नाइक को हराया और सांसद चुने गये। उनकी जीत का अंतर करीब ढाई लाख वोटों का रहा।
संजय अपनी स्पष्टवादिता और मुखरता के चलते कांग्रेस के लिए खरा सिक्का साबित हुए । 2014 में जब देश में मोदी लहर चल रही थी तब संजय निरुपम भाजपा के उम्मीदवार गोपाल शेट्टी से हार गए। शेट्टी ने उन्हें 2 लाख 17 हजार वोटों से हराया। कांग्रेस ने संजय को पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष भी बनाया लेकिन बाद में पार्टी की पराजय के बाद संजय ने अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। कांग्रेस के इसी खरे सिक्के को अब कांग्रेस से छह साल के निष्काषित कर दिया गया है।
पार्टी निर्णयों के खिलाफ खड़े हुए संजय निरुपम को निकलने के अलावा कांग्रेस के पास कोई और विकल्प था भी नही। कहते हैं कि उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना (यूबीटी) द्वारा मुंबई की छह लोकसभा सीट में से मुंबई उत्तर-पश्चिम सीट समेत चार के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा के बाद निरुपम ने कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व पर निशाना साधा था। निरुपम मुंबई उत्तर-पश्चिम सीट से चुनाव लड़ना चाहते थ। निरुपम का कहना था कि कांग्रेस नेतृत्व को शिवसेना (यूबीटी) के आगे दबाव में नहीं झुकना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था कि मुंबई में एकतरफा उम्मीदवार उतारने के शिवसेना (यूबीटी) के फैसले को स्वीकार करना कांग्रेस को बर्बाद करने की अनुमति देने के समान है।
मुमकिन है की संजय निरुपम सही हों लेकिन जिस कांग्रेस ने उन्हें सब कुछ दिया उसके फैसले कि सामने भी उन्हें संजय निरुपम ही बने रहना चाहिए था,उन्होंने पार्टी नेतृत्व को चुनौती देकर गलती की। तय है की कांग्रेस कि स्टार प्रचारक रहे संजय को अब यदि राजनीति करना है तो वे भाजपा की शरण में जायेंगे । निर्दलीय लड़ने की उनकी हैसियत नहीं है। उनके समर्थक उन्हें शायद ही क्षमा करें।
आइये अब बात करते हैं आम आदमी पार्टी कि संजय सिंह की। संजय सिंह खनिज इंजीनयर हैं। वे समाजसेवा करते हुए अन्ना आंदोलन के जरिये सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़े और आम आदमी पार्टी कि साथ राजनीति में आये। वे आम आदमी पार्टी कि सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल कि विश्वसनीय सारथी हैं। संजय संजय सिंह ने आम आदमी पार्टी की तरफ से 2018 तक कोई चुनाव नहीं लड़ा, मगर पार्टी के लिए शुरू से ही काम कर रहे हैं। इसी का परिणाम था की आम आदमी पार्टी ने उन्हें दिल्ली से राज्यसभा भेजा, ताकि पार्टी के कार्यकर्ताओं का मन बना रहे और पार्टी के लोगों को यह भी लगे कि वह उनका ध्यान रखते हैं।इसके अलावा संजय सिंह ने किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों और जिन राज्यों में प्राकृतिक आपदाएं आती वहां सहायता करना, अस्पताल में एंबुलेंस उपलब्ध करवाना आदि कई प्रकार के कार्य पार्टी में रहते हुए किए, जिसके कारण स्वयं और पार्टी दोनों के कद को बड़ा किया।
संजय सिंह को आम आदमी पार्टी ने 2018 में राज्य सभा में भेजा था । वहां वे अपनी पार्टी की ही नहीं बल्कि विपक्ष की एक मजबूत आवाज बने । सबसे पहले उन्हें अपनी मुखरता की सजा राज्य सभा से निलंबन कि रूप में मिली ,बाद में उन्हें ईडी ने कथित शराब घोटाले कि मामले में आरोपी बनाकर जेल भेज दिय। संजय छह माह से जेल में थे और हाल ही में सुप्रीम कोर्ट से सशर्त जमानत पर बाहर आये है। जेल से बाहर आते ही उन्होने सबसे पहले जेल में बंद पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल कि घर जाकर उनकी पत्नी सुनीता से भेंट की और आशीर्वाद लिया। अब संजय सिंह अपनी पार्टी कि लिए अनुपम बन गए हैं।
संजय सिंह कि सामने विकल्प था कि वे सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा कि समाने समर्पण कर गिरफ्तारी से बच सकते थे ,किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किय। वे पार्टी कि प्रति निष्ठावान रहते हुए जेल गए और छह माह बाद जेल से बाहर आये। संजय सिंह भी संजय निरुपम की तरह अपनी पार्टी कि तमाम फैसलों से असहमत होकर पार्टी से बाहर आने की जुगत कर सकते थे । इस समय उन्हें भी सत्तारूढ़ पार्टी में मुंहमांगी कीमत मिल सकती थी ,लेकिन जमीर भी कोई चीज होती है । जो मुंबई कि संजय कि पास नहीं निकली लेकिन दिल्ली कि संजय कि पास इफरात में निकली ।केजरीवाल से असहमत तमाम लोगों ने आम आदमी पार्टी छोड़ दी। कुमार विश्वास और आशुतोष जैसे तमाम लोग संजय सिंह नहीं बन पाए।
राजनीति में संजय होना मुश्किल है । कांग्रेस कि पास संजय निरुपम से पहले एक संजय और थे। वे संजय गांधी थे। आपातकाल में अपनी कथित ज्यादतियों की वजह से खलनायक बने लेकिन उनकी अपनी शैली थी । वे एक दुर्घटना कि शिकार हो गए ,अन्यथा संजय निरुपम को कांग्रेस ने जो मौक़ा दिया वो शायद न मिलता। बहरहाल हम राजनीति में सत्ता कि लिए बल्दियत बदलने कि हमेशा से विरोधी रहे हैं । संजय निरुपम का कांग्रेस से बगावत करना भी हमें इसी तरह से अटपटा लग रहा है। आने वाले दिनों में दोनों संजयों का निर्णय देश की जनता करेगी। जनता को हमेशा याद रखना होगा की कोई भी संजय निरुपम हमेशा कि लिए नहीं होता लेकिन कोई भी संजय सिंह से अनुपम भी बन सकता है।
एक संजय कि पार्टी से बाहर जाने के और एक संजय कि जेल से बाहर आने के असर के बारे में आज बात करने की जरूरत नहीं है । दोनों की मौजूदगी दिल्ली ,मुंबई और देश की राजनीति में रेखांकित अवश्य की जाएगी। इति श्री संजय पुराणे अंतिम अध्याय समाप्त ।
@ राकेश अचल
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