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चीन भी चाहता है नेपाल से नजदीकियां, भारत को करने होंगे सकारात्मक प्रयास

नेपाल की राजधानी काठमांडू की सड़कों पर पूर्व नरेश ज्ञानेंद्र शाह का नाम गूंज रहा है। साल 2006 में भी ये नाम वहां की सड़कों पर गूंजा था। तब और अब भी सड़कों पर प्रदर्शनकारी दिखे, मगर वजह दोनों बार अलग रहीं। पहले लोग राजशाही समाप्त करने की मांग कर रहे थे। अब लोग नेपाल में राजशाही की वापसी चाहते हैं। भारत समेत साथ लगते सभी मुल्कों और मीडिया की निगाहें नेपाल में फिर बदलते सियासी-माहौल पर टिकी हैं।

इसे लेकर तमाम मीडिया हाउस व बीबीसी की रिपोर्ट्स के मुताबिक नेपाल में हाल के प्रदर्शनों में सैकड़ों लोग घायल हुए। मांग सिर्फ़ राजशाही की वापसी की नहीं, बल्कि देश को वापस हिंदू राष्ट्र घोषित करने की भी है। बड़ा सवाल, वहां आख़िर राजशाही की मांग सड़कों पर क्यों आ गई। वहीं, भारत के लिए इसके क्या मायने हैं ? चीन के साथ नेपाल के संबंधों को देखते हुए अगर राजशाही लौटी भी तो इसका क्या कोई फ़ायदा होगा ? बीबीसी ने साप्ताहिक कार्यक्रम ‘द लेंस’ में इस पर चर्चा की। जिसमें नेपाल से लौटे बीबीसी संवाददाता दिलनवाज़ पाशा, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन की फ़ेलो शिवम शेखावत और नेपाल की राजधानी काठमांडू में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार युबराज घिमिरे शामिल हुए।

नेपाल में इन दिनों राजशाही के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं और पूर्व राजा ज्ञानेंद्र का संबोधन सुर्खियों में है। वहां की अर्थव्यवस्था-शासन व्यवस्था की स्थिति ख़राब है। बेहतर जीवन-रोज़गार की तलाश में युवा दूसरे देशों में जा रहे हैं।

इसी अव्यवस्था को मुद्दा बना राजशाही समर्थक प्रदर्शन कर रहे हैं। पत्रकार दिलनवाज़ पाशा के मुताबिक नेपाल में जो व्यवस्था है, उसे लेकर गहरी निराशा है,  भ्रष्टाचार है। जिस तरह से सरकार को काम करना था, वह नहीं हुआ। लोग कहने लगे कि इससे बेहतर तो राजशाही का दौर था। वहीं नेपाली-पत्रकार युबराज के अनुसार साल 2006 में संसद को रिवाइव किया गया था, जो पहले ही समाप्त हो चुकी थी। संसद ने अपने अधिकार से बाहर जाकर बिना किसी बहस के देश को धर्मनिर्पेक्ष भी घोषित किया और राजशाही भी खत्म की। बिना किसी बहस जब राजा सत्ता से बाहर गए तो उनके साथ सहानुभूति भी थी। भ्रष्टाचार और अव्यवस्था फैलने से लोगों को लगता है कि एक ऐसी ताक़त हो, जो उन पर रोक लगाए। नेपाल में राष्ट्रपति पार्टी सदस्य जैसे काम कर रहे हैं। शिवम शेखावत के मुताबिक नेपाल में अशांति और अस्थिरता भारत के हित में नहीं है। उसका नेपाल से पुराना रिश्ता है। कुछ मामलों पर कभी तनाव भी दिखता है, लेकिन दोनों तरफ़ ही लोकतंत्र होने से मामलों ख़त्म करने को ज़्यादा जगह मिलती है। नेपाल की सत्ता में कोई भी आए, लेकिन भारत की यह ज़रूरत है कि वह उनके साथ काम करे। भारत के हित में यही है कि वहां शांति रहे।

इन माहिरों के मुताबिक नेपाल एकीकरण के बाद मौजूदा आकार में आया है। एक तरफ चीन तो दूसरी तरफ भारत है। ऐसे में भारत और चीन से संतुलित संबंध बनाने को पृथ्वी नारायण शाह ने विदेश नीति का एक मौलिक सिद्धांत बनाया था। हालांकि, व्यावहारिक रूप से नेपाल की भारत के साथ ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और व्यापारिक निकटता ज़्यादा रही। दोनों तरफ़ से लोगों का आना जाना रहा, इसलिए नेपाल हमेशा भारत के साथ ज़्यादा बना रहा। जब भी चीन और भारत के बीच सीधे कुछ हुआ तो नेपाल की राजशाही ने भी भारत का साथ दिया। नेपाल में राजनीतिक बदलाव के बाद चीन का निवेश बढ़ा है, जिससे प्रभाव भी बढ़ता है। चीन को लगता है कि नेपाल में साम्यवादी सरकार आती है तो उन्हें फ़ायदा होगा। हालांकि नेपाल की घोषित नीति यही है कि एक का इस्तेमाल दूसरे देश के ख़िलाफ़ नहीं होना चाहिए। नेपाल में लोग यह गर्व करते हैं कि वह एक हिंदू राष्ट्र थे और यह उनकी पहचान थी, लेकिन छीन ली गई। राजशाही आने पर निवेशकों का मनोबल गिरेगा। लोकतंत्र में कई संस्थाए काम करती हैं, जो संतुलन बना जवाबदेही भी होती है। जबकि राजशाही में शक्ति केंद्रित हो जाती है।

कई सालों से नेपाल की अर्थव्यवस्था सही नहीं है और वह एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में भी आ गया था। इन्वेस्टमेंट समिट भी आशा के अनुरूप सफल नहीं रही। ऐसे में अगर राजनीतिक बदलाव होगा तो निवेशकों का भरोसा लौटने में समय लगेगा। निवेशकों को लोकतांत्रिक सरकार की तुलना में राजशाही में ज़्यादा रिस्क है। यहां बता दें कि नेपाल में साल 2001 में दरबार हत्याकांड में राजा ​बीरेंद्र बीर के साथ ही राजपरिवार के अधिकतम सदस्यों की हत्या हो गई थी। इसके बाद, ज्ञानेंद्र शाह को राजा बनाया गया। संवैधानिक राजशाही के बाद साल 2005 में राजा ज्ञानेंद्र शाह ने सरकार को हटाकर पूरी तरह से सत्ता अपने हाथ में ली। इसके बाद राजा के ख़िलाफ़ बड़े प्रदर्शन हुए। फिर 2008 में नेपाली संसद ने राजशाही समाप्त करने का प्रस्ताव पारित किया। इस तरह से नेपाल हिंदू राष्ट्र से एक धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र बन गया था। लोकतंत्र के बाद से राजनीतिक पार्टियों में जवाबदेही पूरी तरह से गायब रही। वे भ्रष्टाचार पर कोई कार्रवाई करती नज़र नहीं आती हैं, इससे भी राजशाही के प्रति सहानुभूति बढ़ी। राजशाही के समर्थक और मौजूदा व्यवस्था से नाराज़ लोग एक साथ आ गए हैं। नेपाल में इस समय तीन पार्टी के तीन लोग पूरी राजनीति चला रहे हैं, जो राजशाही से कम नहीं है।

पिछले एक दशक में सत्ता कोई भी रही हो, भारत और नेपाल का ध्यान संबंधों को मज़बूत करने पर रहा है। दोनों के बीच जिन विषयों पर सहमति है, उस पर ज़्यादा ध्यान दिया जा रहा है. जैसे हाइड्रो पावर पर सहयोग। डिजिटल कनेक्टिविटी बढ़ी है। नेपाल में भारतीय पर्यटक यूपीआई का इस्तेमाल कर सकते हैं। वहां आधारभूत ढांचे के निर्माण में निवेश बढ़ाने के लिए भारत सहयोग दे रहा है। चीन के निवेश और भारत की वरीयता को लेकर प्रश्न बना रहता है। हालांकि नेपाल अब भी भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक पार्टनर है, भारत की एफडीआई भी ज़्यादा है। भारत को व्यक्तिगत राजनीतिक संबंधों के बजाय व्यावसायिक संपर्क, क्षेत्रीय संपर्क जैसे ​बेसिक विषयों पर ध्यान देना चाहिए, जिससे रिश्ते सुधरेंगे।

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