भारत आईएमएफ में तकनीकी तौर पर विरोध दर्ज कराने के लिए कमजोर !
भारत और पाकिस्तान के बीच अघोषित-जंग और सीजफायर के बीच एक और मुद्दा सुर्खियों में है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष यानि आईएमएफ़ ने पाकिस्तान को बेलआउट पैकेज की एक अरब डॉलर की किश्त मंज़ूरी दी। भारत ने आईएमएफ़ के इस क़दम का तीख़ा विरोध किया। उसके विरोध के बावजूद आईएमएफ़ बोर्ड ने सात अरब डॉलर के कर्ज की दूसरी किश्त मंज़ूर करते दलील दी कि पाक में आर्थिक रिकवरी के लिए आईएमएफ़ अपने कार्यक्रम लागू करने में तत्परता दिखा रहा है।
इसे लेकर तमाम मीडिया रिपोर्ट्स के साथ बीबीसी के मुताबिक आईएमएफ़ ने कहा कि वो ‘पर्यावरणीय जोखिमों और प्राकृतिक आपदा’ से निपटने की पाकिस्तान की कोशिशों का समर्थन जारी रखेगा। उसने संकेत दिया कि भविष्य में 1.4 अरब डॉलर की अगली किश्त भी पाकिस्तान को मिलेगी। इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ भारत ने सवाल खड़े कर दो कारणों का हवाला दिया। उसने सुधारात्मक उपायों को लागू करने में पाकिस्तान के ‘ख़राब रिकॉर्ड’ को देखते हुए इस तरह के बेलआउट के ‘प्रभावी होने’ पर सवाल उठाया। हालांकि इससे भी महत्वपूर्ण सवाल उठाया कि इस फ़ंड का इस्तेमाल ‘सरकार प्रायोजित सीमापार आतंकवाद’ में हो सकता है। जबकि इसे पाकिस्तान लगातार खारिज करता रहा है। भारत के अनुसार आईएमएफ़ खुद की और अपने डोनोर्स की ‘प्रतिष्ठा को जोखिम’ में डाल ‘वैश्विक मूल्यों का मज़ाक’ बना रहा है। बीबीसी के मुताबिक आईएमएफ़ ने इस पर प्रतिक्रिया नहीं दी।
पाकिस्तानी एक्सपर्ट्स कह रहे हैं कि दिल्ली के पहले सवाल में कुछ दम है। पाकिस्तान आईएमएफ़ से लगातार मदद मांगता रहा है, 1958 से उसे 24 बार आईएमएफ़ का बेलआउट पैकेज मिल चुका है। जबकि इस दौरान ना तो कोई अर्थपूर्ण सुधार और ना ही लोक प्रशासन में बदलाव दिखा। अमेरिका में पाकिस्तानी राजदूत रहे हुसैन हक़्क़ानी के मुताबिक आईएमएफ़ में जाना आईसीयू में जाने जैसा है। अगर कोई मरीज 24 या 25 बार आईसीयू में जाता है तो इसका मतलब है कि ढांचागत चुनौतियों और चिंताओं से निपटने की ज़रूरत है। माहिरों के अनुसार इस्लामाबाद को बेलआउट की नई किश्त मिलने से रोकने की कोशिश करने का भारत का फ़ैसला किसी ठोस नतीजे तक पहुंचने की उसकी इच्छा से ज़्यादा प्रचारात्मक अधिक था। खुद भारतीय टिप्पणियों के अनुसार, आईएमएफ़ के पास कर्ज के संबंध में कुछ कर सकने की क्षमता सीमित थी। भारत आईएमएफ़ बोर्ड के 25 सदस्यों में से एक है और इस फ़ंड पर उसका प्रभाव बहुत सीमित है। वह श्रीलंका, बांग्लादेश और भूटान समेत चार देशों के ग्रुप का प्रतिनिधित्व करता है। जबकि पाकिस्तान सेंट्रल एशिया ग्रुप का हिस्सा है, जिसका प्रतिनिधित्व ईरान करता है।
संयुक्त राष्ट्र से उलट, जहां एक देश के पास एक वोट होता है, आईएमएफ़ बोर्ड में सदस्यों के वोटिंग अधिकार देश के आर्थिक आकार और उसके योगदान पर आधारित हैं। हालांकि इसीलिए इस सिस्टम की आलोचना लगातार बढ़ी है कि यह विकासशील देशों पर धनी पश्चिमी देशों को तरजीह देता है। मसन, अमेरिका के पास 16.49% का सबसे अधिक वोटिंग शेयर है, जबकि भारत के पास महज 2.6% वोटिंग शेयर है। आईएमएफ़ नियम किसी प्रस्ताव के ख़िलाफ़ वोट करने का अधिकार नहीं देते। इसलिए बोर्ड के सदस्य या तो पक्ष में वोट दे सकते हैं या अनुपस्थित रह सकते हैं। जो भी फ़ैसले हैं, वो बोर्ड में आम सहमति से होते हैं। एक अर्थशास्त्री के अनुसार इससे पता चलता है कि ताक़तवर देशों के निहित हित किस प्रकार फ़ैसलों को प्रभावित करते हैं। साल 2023 में जी-20 देशों की अध्यक्षता भारत के पास आई तो उसकी तरफ़ से आईएमएफ़ और अन्य बहुपक्षीय डोनोर्स के लिए सुधार के जो सुझाव दिए गए थे, उसमें इस असंतुलन को दूर करना प्रमुख बात थी।
भारतीय पूर्व नौकरशाह एनके सिंह व अमेरिकी वित्त मंत्री लॉरेंस समर्स ने अपनी रिपोर्ट में अहम सुझाव दिया था। जिसके अनुसार ‘ग्लोबल नॉर्थ’ और ‘ग्लोबल साउथ’ दोनों का निष्पक्ष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने को आईएमएफ़ में वोटिंग अधिकार, वित्तीय योगदान अलग होने चाहिएं। इसके अलावा, संघर्ष में रहने वाले देशों को फ़ंड देने के बारे में आईएमएफ़ के खुद के नियमों में बदलाव भी इस मुद्दे को और जटिल बनाता है। 2023 में यूक्रेन को आईएमएफ़ द्वारा दिया 15.6 अरब डॉलर का कर्ज, जंग लड़ रहे किसी देश को दिया पहला कर्ज था। दिल्ली के थिंकटैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन के मिहिर शर्मा के मुताबिक यूक्रेन को भारी भरकम कर्ज पैकेज देने के लिए उसने अपने ही नियम ताक पर रखे, जिसका अर्थ है कि वह इसी बहाने पाकिस्तान को पहले से दिए जा रहे कर्ज को बंद नहीं कर सकता। हक़्क़ानी कहते हैं, अगर भारत अपनी शिकायतों का वाक़ई समाधान चाहता है तो उसके लिए सही फ़ोरम यूनाइटेड नेशंस एफ़एटीएफ़ है। जो ‘आतंकवाद के वित्त पोषण’ से लड़ने की निगरानी करता है।
ये टास्क फ़ोर्स तय करती है कि किन देशों को ग्रे या ब्लैक लिस्ट में शामिल करें, ताकि उन्हें आईएमएफ़ और वर्ल्ड बैंक जैसी संस्थाओं से फ़ंड लेने से रोक सकें। आईएमएफ़ में भारत का रुख़ काम नहीं आया और ना ही यह कारगर रहा। अगर कोई देश एफ़एटीएफ़ सूची में है तो उसे आईएमएफ़ से कर्ज हासिल करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, जैसा कि पाकिस्तान के साथ पहले हो चुका है।
आज पाकिस्तान को 2022 की एफ़एटीएफ़ की ग्रे लिस्ट से आधिकारिक रूप से निकाला जा चुका है। इसके अलावा, एक्सपर्ट चेताते हैं कि आईएमएफ़ की फ़ंड देने की प्रक्रिया और वीटो पॉवर में आमूल चूल बदलाव लाने को भारत की मांग दोधारी तलवार साबित हो सकती है। इस तरह के सुधारों से दिल्ली की बजाए बीजिंग को अधिक ताक़त मिलने की ज़्यादा संभावना है।